गीत-ग़ज़ल

Urdu Poetry: पढ़िए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की चुनिंदा ग़ज़लें, पढ़कर जरुर कहेंगे वाह…

डिजिटल डेस्क। फ़ैज़ अह्मद फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव (इंक़लाबी और रूमानी) के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी (तरक्कीपसंद) दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। फ़ैज़ पर कई बार कम्यूनिस्ट (साम्यवादी) होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप लगे थे पर उनकी रचनाओं में ग़ैर-इस्लामी रंग नहीं मिलते। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता ‘ज़िन्दान-नामा’ को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा’। खैर हम यहां आपको बता रहे हैं फैंज साहब की कुछ चुनिंदा ग़ज़लों के बारे में…

1…
हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए
काफ़िरों की नमाज़ हो जाए

दिल रहीन-ए-नियाज़ हो जाए
बेकसी कारसाज़ हो जाए

मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे
दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए

इश्क़ दिल में रहे तो रुस्वा हो
लब पे आए तो राज़ हो जाए

लुत्फ़ का इंतिज़ार करता हूँ
जौर ता हद्द-ए-नाज़ हो जाए

उम्र बे-सूद कट रही है ‘फ़ैज़’
काश इफ़शा-ए-राज़ हो जाए

2-
जब तुझे याद कर लिया
शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई
दिल था कि फिर बहल गया जाँ थी कि फिर सँभल गई

बज़्म-ए-ख़याल में तिरे हुस्न की शम्अ जल गई
दर्द का चाँद बुझ गया हिज्र की रात ढल गई

जब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी
जब तिरा ग़म जगा लिया रात मचल मचल गई

दिल से तो हर मोआ’मला कर के चले थे साफ़ हम
कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई

आख़िर-ए-शब के हम-सफ़र ‘फ़ैज़’ न जाने क्या हुए
रह गई किस जगह सबा सुब्ह किधर निकल गई

3…
कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ
कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे
कब तक चैन की मोहलत दोगे कब तक याद न आओगे

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

4…
चलो ‘फ़ैज़’ दिल जलाएँ करें फिर से अर्ज़-ए-जानाँ
वो सुख़न जो लब तक आए पे सवाल तक न पहुँचे

उतरे थे कभी ‘फ़ैज़’ वो आईना-ए-दिल में
आलम है वही आज भी हैरानी-ए-दिल का

5…
क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था
वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है

 

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